
आज शिक्षा के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा इतनी बढ़ गई है कि चार साल के बच्चो को भी अस्वीकृति की मानसिक यातना झेलनी पड़ती है। बात 1978 की है, मै अमर चित्र कथा के प्रसार के सिलसिले में दिल्ली गया हुआ था, वहां मैने देखा कि एक स्कूल का प्रिंसीपल चार साल के एक बच्चे के पिता से कह रहा था, 'और कितनी बार कहूं आपसे......? आपका बच्चा टेस्ट में फेल हो गया हैए इसे हमारे स्कूल मे दाखिला नही मिल सकता।'
उस मासूम बच्चे ने पहले अपने पिता को देखा, फिर प्रिंसीपल को देखा और उसके बाद अपने कानों से अपनी नन्ही-नन्ही उंगलीयां डाजकर सिसक-सिसक कर रोने लगा! वह बच्चा..जो अपनी मां की आंखो का तारा था..अपने पिता के कलेजे का टुकड़ा था......वह पहली बार किसी के मुंह से सुन रहा था कि एक जगह ऐसी भी है जहां उसकी कोई पूछ नहीं...कोई जरूरत नहीं।
इस घटना को देखकर मेरा मन बड़ा ही खराब हो गया...! मैने सोचा, अपनी शिक्षा पूरी करने तक न जाने कितनी बार इस बच्चे को इस तरह की अस्वीकृतियों का सामना करना पड़ेगा। उस तरह की अस्वीकृतियों का डर हमेशा उसके मन में पलता रहेगा। उस स्थिति में उस बच्चे के मन पर कितना भारी दबाव बना रहेगा! खासकर नवीं कक्षा में पहुंचने के बाद तो चैबीसों घंटे उसके मन में असुरक्षा की भावना बनी रहेगी, उस हालत में क्या वह अपने मनपसंद विषय का चुनाव कर पाएगा? शिक्षा समाप्त करने के बाद क्या उसे आसानी से नौकरी मिल पाएगी? अगर उसे नौकरी की तलाश में दर-दर की ठोकरें खानी पड़ी तो उसके मन पर क्या गुजरेगी? क्या तब असुरक्षा की भावना से बचने के लिए वह मन में तरह-तरह के अवरोध खड़े नही कर लेगा? क्या वह दूसरों से प्यार करना, दूसरों की मदद करना सीख सकेगा? कहीं असुरक्षा की भावना उसे हिंसा की तरफ तो नहीं ढकेल देगी? या फिर उस भावना के वशीभूत होकर वह शराब या नशीली दवाओं के सेवन जैसी पलायनवादी वृत्तियों का शिकार तो नहीं हो जाएगा? या फिर हो सकता है कि बड़ा होने पर वह अपने आपको दूसरे दर्जे के नागरिक से अधिक कुछ भी न समझे और हमेशा दूसरों के इशारों पर चलने के लिए तैयार रहे....!
कुछ समय बाद, बंबई में मैेने कुछ पढ़े-लिखे नौजवानों को मार-काट जैसा अपराध करते हुए देखा! बाद में मैं कई नौजवानों से मिला और मैंने उनसे बातचीत की। तब मुझे एक बात महसूस हुई कि भले ही आज हमारी शिक्षा प्रणाली युवा पीढ़ी के सदस्यो को भरपूर जानकारी प्रदान करती है? परंतु वह उन्हें यह नहीं सिखाती कि जिंदगी का सामना कैसे किया जाए।
आज हर तरफ हिंसा बढ़ती जा रही है। युवा पीढ़ी में मादक द्रव्यों का सेवन तेजी से बढ़ता जा रहा है। कहते हैं कि सिर्फ बंबई में ही एक लाख युवक-युवतियां नशीली दवाओं के अभ्यस्त हैं।
इन बुराईयों को दूर करने के कई हल सुझाए गए है।
अगर किसी घर के ड्राइंग रूम की दीवार पर काई का धब्बा उभर आए तो उसे खत्म करने के लिए क्या करना चाहिए? कुछ लोग उस जगह पर रोगाणुनाशी दवा का छिड़काव करेंगे। उससे उतनी जगह से काई का धब्बा गायब हो जाएगा, मगर कुछ समय बाद वह फिर उग आएगा और उसे दोबारा खुरचना पड़ेगा।
मगर काई का खात्मा करने के लिए उक्त दोंनो ही उपाय सही नहीं है। उसे दूर करने का आसान और उचित उपाय है कि इस बात का ख्याल रखा जाए की दीवार मे नमी ही न रहे। नमी के अभाव में काई उग ही नहीं सकती।
हिंसात्मक और पलायनवादी वृत्तियों का जन्म होता है असुरक्षा की भावना की वजह से। आज हमारी सामाजिक व्यवस्था और शिक्षा प्रणाली युवा वर्ग में इसी भावना को जन्म देती है। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि हमारी युवा पीढ़ी के सदस्यों के मन में आत्म सम्मान की भावना जन्म ले। जिस व्यक्ति के मन में आत्म सम्मान की प्रबल भावना होगी, न तो वह कभी हिंसा का सहारा लेगा और न ही पलायनवादी वृत्तियों का शिकार होगा।
साभारः आत्मविश्वास कैसे प्राप्त करे